हमारे बारेमे कुछ शब्द

अर्थ बूस्टर ओर्गानिक

60–70 साल पहले अनाज, सब्जियां और फल पौष्टिक हुआ करते थे। उस भोजन को खाने के बाद मानव शरीर को आवश्यक तत्व मिल जाते थे । हमारे पूर्वजों ने जो खेती की वह पूरी खाद पर बिना रसायनों के उपयोग के की गई थी। अब हम ऐसा नहीं करते हैं।

रसायनों के दुष्प्रभाव

खेत में रसायनों से सबसे पहले मिट्टी को नुकसान पहुंचता है। मिट्टी के पोषक तत्व, जीव-जंतु नष्ट हो जाते हैं और लवणीय, कठोर, बंजर होने की राह पर चले जाते हैं। वही रसायन पानी में मिलाए जाते हैं। तो पानी खराब हो जाता है, बारिश के बाद खेत में इस्तेमाल होने वाले रसायन बारिश के पानी के साथ बहते हैं और कुओं, नालों, नदियों, बांधों में मिल जाते हैं। ये रसायन जानवरों और पक्षियों सहित हमारे शरीर में पीने के पानी के माध्यम से प्रवेश करते हैं। मानव शरीर को आहार से पोषक तत्व नहीं मिलते हैं। रासायनिक आहार, जल, वायु आज विभिन्न रोगों का कारण बन रहे हैं।

किसान मित्रों, कृषि और उत्पादन को कम लागत पर बढ़ाने के लिए हमें इन रसायनों का उपयोग कम करना चाहिए और जैविक खेती की ओर रुख करना चाहिए। आज खेती की लागत बहुत अधिक है, जैविक खेती से खेती की लागत कम होगी।मिट्टी अच्छी रहेगी और पैदावार भी बढ़ेगी। पौष्टिक भोजन बाजार में अच्छी कीमत पर बेचा जा सकता है। चूंकि कृषि उपज का स्वाद और गुणवत्ता अच्छी है, इसलिए कीमत भी अच्छी होगी। आज एक वर्ग है जो जैविक खेती से सब्जियां, अनाज और फल खरीदने के लिए तीन गुना अधिक भुगतान करता है। वर्तमान जागरूक उपभोक्ता उत्पाद की गुणवत्ता से समझौता नहीं करता है। उपभोक्ता भोजन और फलों को लेकर अधिक गंभीर होते हैं। प्रत्येक आइटम की जांच करके उत्पाद का चयन करता है।

वर्मी कंपोस्ट का इस्तेमाल ही बचा सकता बीमारियों से

अधिक रसायनिक खाद व दवाइयों के इस्तेमाल से अनाज, सब्जिया, दूध व पानी में विषैलापन आ रहा है जो मानव के जीवन पर असर डाल रहा है। इनके सेवन से हार्ट अटैक, शुगर, ब्लडप्रेशर व अन्य कई प्रकार की बीमारियों से मनुष्य घिरता जा रहा है। यदि इन बीमारियों को तिलाजलि देनी है तो इसका एक ही उपाय है हमें खेती में रसायनों के अंधाधुंध इस्तेमाल को छोड़ जैविक खेती को अपनाना होगा।

जैविक खेती रसायनिक खेती से सस्ती पड़ती है। इसका कच्चा माल किसान के पास उपलब्ध होता है, जैसे गोबर से कंपोस्ट खाद, चारे व फसलों के अवशेष से तैयार खाद, केंचुए की खाद, गोमूत्र से हम हारमोन तैयार कर सकते है। अगर हमें भूमि की उर्वरा शक्ति बचाए रखनी है तो वर्मी कंपोस्ट कर इस्तेमाल करना होगा। इससे रासायनिक खादों की मात्रा में कमी आएगी।

वर्मी कम्पोस्ट क्या है?

यह वह प्रक्रिया है जिसमें केंचुओं की कुछ प्रजातियों (प्रकृति का हल चलाने वाला) का उपयोग कार्बनिक पदार्थों (अपशिष्ट) को ह्यूमस जैसी सामग्री में बदलने के लिए किया जाता है। केंचुए जितनी जल्दी हो सके सामग्री को जल्दी और कुशलता से संसाधित करते हैं। वे बायोमास का उपभोग करते हैं और इसे पचाने में उत्सर्जित करते हैं, जिसे वर्म कास्ट कहा जाता है; लोकप्रिय रूप से ब्लैक गोल्ड के रूप में जाना जाता है।

वर्मी कम्पोस्टिंग प्रक्रिया जैविक अपशिष्ट रूपांतरण प्रक्रिया को बढ़ाने के लिए सूक्ष्म जीवों और कृमियों को रोजगार देती है। केंचुए कार्बनिक अपशिष्ट पदार्थों को खिलाते हैं, जो तब उनके पाचन तंत्र से गुजरते हैं और कोकून नामक दानेदार रूप में बाहर आते हैं। इस उत्पाद को वर्मी कंपोस्ट कहा जाता है। यह समृद्ध, काला और मिट्टी की महक वाला आता है। वर्मीकम्पोस्ट बगीचे और कंटेनर पौधों के लिए एक बढ़िया चारा है।

भारत में पुराने समय से ही जैविक कृषि ही की जाती थी परंतु जनसंख्या वृद्धि के कारण अनाज की कमी को पूरा करने के लिए हरित क्रांति का आगमन हुआ जिससे फसल की पैदावार में तो बढ़ोतरी हुई परंतु इससे भूमि की उपज क्षमता पर विपरित असर पड़ा. वातावरण, पेयजल, स्वास्थ्य पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ा. इन सब चीजों को ध्यान में रखते हुए जैविक कृषि को बढ़ावा देने का प्रयास किया जा रहा है. विश्व में 154 देशों में जैविक कृषि को बढ़ावा दिया जा रहा है. कृषि उत्पादन में रसायन रहित पदार्थों, स्वस्थ जलवायु, पौधों व जमीन संरक्षण के लिए केवल जैविक खेती ही एक मात्र विकल्प है.

केंचुआ खाद या वर्मीकम्पोस्ट (Vermicompost) पोषण पदार्थों से भरपूर एक उत्तम जैव उर्वरक है। यह केंचुआ आदि कीड़ों के द्वारा वनस्पतियों एवं भोजन के कचरे आदि को विघटित करके बनाई जाती है। वर्मी कम्पोस्ट में बदबू नहीं होती है और मक्खी एवं मच्छर नहीं बढ़ते है तथा वातावरण प्रदूषित नहीं होता है। तापमान नियंत्रित रहने से जीवाणु क्रियाशील तथा सक्रिय रहते हैं। वर्मी कम्पोस्ट डेढ़ से दो माह के अंदर तैयार हो जाता है। इसमें 2.5 से 3% नाइट्रोजन, 1.5 से 2% सल्फर तथा 1.5 से 2% पोटाश पाया जाता है। केचुँआ खाद की केवल 2 टन मात्रा प्रति हैक्टेयर आवश्यक है।

केंचुआ कृषकों का मित्र एवंभूमि की आंतकहा जाता है।

यह सेन्द्रिय पदार्थ (ऑर्गैनिक पदार्थ), ह्यूमस व मिट्टी को एकसार करके जमीन के अन्दर अन्य परतों में फैलाता है इससे जमीन पोली होती है व हवा का आवागमन बढ़ जाता है, तथा जलधारण की क्षमता भी बढ़ जाती है। केचुँए के पेट में जो रासायनिक क्रिया व सूक्ष्म जीवाणुओं की क्रिया होती है, उससे भूमि में पाये जानेवाले नाइट्रोजन , स्फुर (फॉस्फोरस), पोटाश, कैलशियम व अन्य सूक्ष्म तत्वों की उपलब्धता बढ़ती है।

ऐसा पाया गया है कि मिट्टी में नत्रजन 7 गुना, फास्फोरस 11 गुना और पोटाश 14 गुना बढ़ता है।

केचुँए अकेले जमीन को सुधारने एवं उत्पादकता वृद्धि में सहायक नहीं होते बल्कि इनके साथ सूक्ष्म जीवाणु, सेन्द्रित पदार्थ, ह्यूमस इनका कार्य भी महत्वपूर्ण है। केचुँए सेन्द्रिय पदार्थ, एवं मिट्टी खाने वाले जीव है जो सेप्रोफेगस वर्ग में आते है। केंचुआ और केंचुआ खाद के उपयोग मिट्टी की दृष्टि से केचुँए से भूमि की गुणवत्ता में सुधार आता है। भूमि की जलधारण क्षमता बढ़ती है। भूमि का उपयुक्त तापक्रम बनाये रखने में सहायक। भूमि से पानी का वाष्पीकरण कम होगा। अतः सिंचाई जल की बचत होगी। केचुँए नीचे की मिट्टी ऊपर लाकर उसे उत्तम प्रकार की बनाते हैं।

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